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Where Values Were Worshipped, Not Monuments
‘Sajal Shraddha – Prakhar Pragya’ ritual held ahead of Birth Centenary celebrations
Haridwar | December 16
Some moments do not merely become part of history; they shape its direction. One such moment unfolded at Haridwar when the ‘Sajal Shraddha – Prakhar Pragya’ special ritual was performed ahead of the forthcoming Birth Centenary celebrations of Vandaniya Mata Bhagwati Devi Sharma and the Akhand Deep, organised by the All World Gayatri Pariwar, Shantikunj.
The ritual was not a worship of stone memorials but a reverential offering to a living legacy — the consciousness, tapasya and resolve that guided an entire era and illuminated millions of lives. It stood as a tribute to values that cont...
जन्मशताब्दी समारोह स्थल में जहाँ स्मारक नहीं, संस्कार पूजे गए
आयोजन से पूर्व युगऋषिद्वय की पावन स्मारक का हुआ विशेष पूजन कार्यक्रम
हरिद्वार 16 दिसंबर।
कुछ क्षण ऐसे होते हैं जो इतिहास नहीं बनते, बल्कि इतिहास को दिशा देते हैं। अखिल विश्व गायत्री परिवार, शांतिकुंज द्वारा आयोजित होने जा रहे वंदनीया माता भगवती देवी शर्मा एवं अखण्ड दीप के शताब्दी समारोह से पूर्व सम्पन्न हुआ ‘सजल श्रद्धा-प्रखर प्रज्ञा’ का विशेष पूजन ऐसा ही एक क्षण था। पूजा किसी स्मारक की नहीं थी, यह उस चेतना का पूजन था जिसने एक युग को दिशा दी, उस तपस्या का वंदन था जिसने करोड़ों जीवनों में आलोक जगाया और उस संकल्प के प्रति नतमस्तक होने का क्षण था जो आज भी भारत की आत्मा को जाग्रत कर रहा है।
रामकृष्ण मिशन के संत स्वामी दयामूत्र्यानंद जी एवं श्री अरविन्द आश्रम के प्रमुख संत स्वामी ब्रह्मदेव जी की...
हमारी वसीयत और विरासत (भाग 130): स्थूल का सूक्ष्मशरीर में परिवर्तन— सूक्ष्मीकरण
सूक्ष्मशरीरधारियों का वर्णन और विवरण पुरातन ग्रंथों में विस्तारपूर्वक मिलता है। यक्ष और युधिष्ठिर के मध्य विग्रह तथा विवाद का महाभारत में विस्तारपूर्वक वर्णन है। यक्ष, गंधर्व, ब्रह्मराक्षस जैसे कई वर्ग सूक्ष्मशरीरधारियों के थे। विक्रमादित्य के साथ पाँच ‘वीर’ रहते थे। शिव जी के गण ‘वीरभद्र’ कहलाते थे। भूत-प्रेत, जिन्न, मसानों की अलग ही बिरादरी थी। ‘अलादीन का चिराग’ जिनने पढ़ा है, उन्हें इस समुदाय की गतिविधियों की जानकारी होगी। छायापुरुष-साधना में अपने निज के शरीर से ही एक अतिरिक्त सत्ता गढ़ ली जाती है और वह एक समर्थ अदृश्य साथी-सहयोगी जैसा काम करती है।
इन सूक्ष्मशरीरधारियों में अधिकांश का उल्लेख हानिकारक या नैतिक दृष्टि से हेयस्तर पर हुआ है। संभव है, उन दिनों अतृप्त, विक्षुब्ध स्तर के योद्धा रण...
हमारी वसीयत और विरासत (भाग 129): स्थूल का सूक्ष्मशरीर में परिवर्तन— सूक्ष्मीकरण
यह स्थिति शरीर त्यागते ही हर किसी को उपलब्ध हो जाए, यह संभव नहीं। भूत-प्रेत चले तो सूक्ष्मशरीर में जाते हैं, पर वे बहुत ही अनगढ़ स्थिति में रहते हैं। मात्र संबंधित लोगों को ही अपनी आवश्यकताएँ बताने भर के कुछ दृश्य कठिनाई से दिखा सकते हैं। पितरस्तर की आत्माएँ उनसे कहीं अधिक सक्षम होती हैं। उनका विवेक एवं व्यवहार कहीं अधिक उदात्त होता है। इसके लिए उनका सूक्ष्मशरीर पहले से ही परिष्कृत हो चुका होता है। सूक्ष्मशरीर को उच्चस्तरीय क्षमतासंपन्न बनाने के लिए विशेष प्रयत्न करने पड़ते हैं। वे तपस्वी स्तर के होते हैं। सामान्य काया को सिद्धपुरुष स्तर की बनाने के लिए अगला कदम सूक्ष्मीकरण का है। सिद्घपुरुष अपनी काया की सीमा में रहकर जो दिव्य क्षमता अर्जित कर सकते हैं; कर लेते हैं, उसी से दूसरों की सेवा-सहायत...
हमारी वसीयत और विरासत (भाग 128): स्थूल का सूक्ष्मशरीर में परिवर्तन— सूक्ष्मीकरण
हमें अपनी प्रवृत्तियाँ बहुमुखी बढ़ा लेने के लिए कहा गया है। इसमें सबसे बड़ी कठिनाई स्थूलशरीर का सीमा-बंधन है। यह सीमित है। सीमित क्षेत्र में ही काम कर सकता है। सीमित ही वजन उठा सकता है। काम असीम क्षेत्र से संबंधित हैं और ऐसे हैं, जिनमें एक साथ कितनों से ही वास्ता पड़ना चाहिए। यह कैसे बने? इसके लिए एक तरीका यह है कि स्थूलशरीर को बिलकुल ही छोड़ दिया जाए और जो करना है, उसे पूरी तरह एक या अनेक सूक्ष्मशरीरों से संपन्न करते रहा जाए। निर्देशक को यदि यही उचित लगेगा, तो उसे निपटाने में पल भर की भी देर नहीं लगेगी। स्थूलशरीरों का एक झंझट है कि उनके साथ कर्मफल के भोग-विधान जुड़ जाते हैं। यदि लेन-देन बाकी रहे तो अगले जन्म तक वह भार लदा चला जाता है और फिर खिंच-तान करता है। ऐसी दशा में उसके भोग भुगतते हुए जाने ...
हमारी वसीयत और विरासत (भाग 127): स्थूल का सूक्ष्मशरीर में परिवर्तन— सूक्ष्मीकरण
युग-परिवर्तन की यह एक ऐतिहासिक वेला है। इन बीस वर्षों में हमें जमकर काम करने की ड्यूटी सौंपी गई थी। सन् 1980 से लेकर अब तक के पाँच वर्षों में जो काम हुआ है, पिछले 30 वर्षों की तुलना में कहीं अधिक है। समय की आवश्यकता के अनुरूप तत्परता बरती गई और खपत को ध्यान में रखते हुए तदनुरूप शक्ति उपार्जित की गई है। यह वर्ष कितनी जागरूकता, तन्मयता, एकाग्रता और पुरुषार्थ की चरम सीमा तक पहुँचकर व्यतीत करने पड़े हैं, उनका उल्लेख उचित न होगा; क्योंकि इस तत्परता का प्रतिफल 2400 प्रज्ञापीठों और 15000 प्रज्ञा-संस्थानों के निर्माण के अतिरिक्त और कुछ प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर नहीं होता। एक कड़ी हर दिन एक फोल्डर लिखने की इसमें और जोड़ी जा सकती है, शेष सब कुछ परोक्ष है। परोक्ष का प्रत्यक्ष लेखा-जोखा किस प्रकार संभव हो?
युगस...
हमारी वसीयत और विरासत (भाग 126): तपश्चर्या— आत्मशक्ति के उद्भव हेतु अनिवार्य
रामकृष्ण परमहंस के सामने यही स्थिति आई थी। उन्हें व्यापक काम करने के लिए बुलाया गया। योजना के अनुसार उनने अपनी क्षमता विवेकानंद को सौंप दी तथा उनने कार्यक्षेत्र को सरल और सफल बनाने के लिए आवश्यक ताना-बाना बुन देने का कार्य सँभाला। इतना बड़ा काम वे मात्र स्थूलशरीर के सहारे कर नहीं पा रहे थे। सो उनने उसे निःसंकोच छोड़ भी दिया। बैलेंस से अधिक वरदान देते रहने के कारण उन पर ऋण भी चढ़ गया था। उसकी पूर्ति के बिना गाड़ी रुकती। इसलिए स्वेच्छापूर्वक कैंसर का रोग भी ओढ़ लिया। इस प्रकार ऋणमुक्त होकर विवेकानंद के माध्यम से उस कार्य में जुट गए, जिसे करने के लिए उनकी निर्देशक सत्ता ने उन्हें संकेत किया था। प्रत्यक्षतः रामकृष्ण तिरोहित हो गए। उनका अभाव खटका, शोक भी बना, पर हुआ वह, जो श्रेयस्कर था। दिवंगत होने के...
हमारी वसीयत और विरासत (भाग 125): तपश्चर्या— आत्मशक्ति के उद्भव हेतु अनिवार्य
यह जीवनचर्या के अद्यावधि भूतकाल का विवरण हुआ। वर्तमान में इसी दिशा में एक बड़ी छलांग लगाने के लिए उस शक्ति ने निर्देश किया है, जिस सूत्रधार के इशारों पर कठपुतली की तरह नाचते हुए समूचा जीवन गुजर गया। अब हमें तपश्चर्या की एक नवीन उच्चस्तरीय कक्षा में प्रवेश करना पड़ा है। सर्वसाधारण को इतना ही पता है कि हम एकांतवास में हैं; किसी से मिल-जुल नहीं रहे हैं। यह जानकारी सर्वथा अधूरी है; क्योंकि जिस व्यक्ति के रोम-रोम में कर्मठता, पुरुषार्थपरायणता, नियमितता, व्यवस्था भरी पड़ी हो, वह इस प्रकार का निरर्थक और निष्क्रिय जीवन जी ही नहीं सकता, जैसा कि समझा जा रहा है। एकांतवास में हमें पहले की अपेक्षा अधिक श्रम करना पड़ा है। अधिक व्यस्त रहना पड़ा है तथा लोगों से न मिलने की विधा अपनाने पर भी इतनों से, ऐसों से संपर...
हमारी वसीयत और विरासत (भाग 124): तपश्चर्या— आत्मशक्ति के उद्भव हेतु अनिवार्य
तपश्चर्या के मौलिक सिद्धांत हैं— संयम और सदुपयोग। इंद्रियसंयम से— पेट ठीक रहने से स्वास्थ्य नहीं बिगड़ता। ब्रह्मचर्यपालन से मनोबल का भंडार चुकने नहीं पाता। अर्थसंयम से— नीति की कमाई से औसत भारतीय स्तर का निर्वाह करना पड़ता है; फलतः न दरिद्रता फटकती है और न बेईमानी की आवश्यकता पड़ती है। समयसंयम से व्यस्त दिनचर्या बनाकर चलना पड़ता है और श्रम तथा मनोयोग को निर्धारित सत्प्रयोजनों में लगाए रहना पड़ता है। फलतः कुकर्मों के लिए समय ही नहीं बचता। जो बन पड़ता है, श्रेष्ठ और सार्थक ही होता है। विचारसंयम से एकात्मता सधती है। आस्तिकता, आध्यात्मिकता और धार्मिकता का दृष्टिकोण विकसित होता है।
भक्तियोग, ज्ञानयोग, कर्मयोग की साधना सहज सधती रहती है। संयम का अर्थ है— बचत। चारों प्रकार का संयम बरतने पर मनुष्य के पास...
हमारी वसीयत और विरासत (भाग 123): तपश्चर्या— आत्मशक्ति के उद्भव हेतु अनिवार्य:
भारतीय स्वाधीनता-संग्राम के दिनों महर्षि रमण का मौन तप चलता रहा। इसके अतिरिक्त भी हिमालय में अनेक उच्चस्तरीय आत्माओं की विशिष्ट तपश्चर्याएँ इसी निमित्त चलीं। राजनेताओं द्वारा संचालित आंदोलनों को सफल बनाने में इस अदृश्य सूत्र-संचालन का कितना बड़ा योगदान रहा, इसका स्थूलदृष्टि से अनुमान न लग सकेगा, किंतु सूक्ष्मदर्शी तथ्यान्वेषी उन रहस्यों पर पूरी तरह विश्वास करते हैं।
“जितना बड़ा कार्य उतना बड़ा उपाय-उपचार” के सिद्धांत को ध्यान में रखते हुए इस बार की विशिष्ट तपश्चर्या, वातावरण के प्रवाह को बदलने-सुधारने के लिए की गई है। इसलिए उसका स्तर और स्वरूप कठिन है। आरंभिक दिनों में जो काम कंधे पर आया था, वह भी लोक-मानस को परिष्कृत करने, जाग्रत आत्माओं को एक संगठन-सूत्र में पिरोने और रचनात्मक गतिविधियों का उ...
