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हमारी वसीयत और विरासत (भाग 72): महामानव बनने की विधा, जो हमने सीखी-अपनाई
उचित होगा कि आगे का प्रसंग प्रारंभ करने के पूर्व हम अपनी जीवन-साधना के— स्वयं की आत्मिक प्रगति से जुड़े तीन महत्त्वपूर्ण चरणों की व्याख्या कर दें। हमारी सफल जीवनयात्रा का यही केंद्रबिंदु रहा है। आत्मगाथा पढ़ने वालों को इस मार्ग पर चलने की इच्छा जागे; प्रेरणा मिले, तो वे उस तत्त्व दर्शन को हृदयंगम करें, जो हमने जीवन में उतारा। अलौकिक रहस्य-प्रसंग पढ़ने-सुनने में अच्छे लग सकते हैं, पर रहते वे व्यक्तिविशेष तक ही सीमित हैं। उनसे ‘हिप्नोटाइज’ होकर कोई उसी कर्मकांड की पुनरावृत्ति कर हिमालय जाना चाहे, तो उसे कुछ हाथ न लगेगा। सबसे प्रमुख पाठ जो इस कायारूपी चोले में रहकर हमारी आत्मसत्ता ने सीखा है, वह है— सच्ची उपासना, सही जीवन-साधना एवं समष्टि की आराधना। यही वह मार्ग है, जो व्यक्ति को नरमानव से देवमानव...
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हमारी वसीयत और विरासत (भाग 71): मथुरा के कुछ रहस्यमय प्रसंग
यह रहस्यमयी बातें हैं। आयोजन का प्रत्यक्ष विवरण तो हम दे चुके हैं। पर जो रहस्यमय था, सो अपने तक सीमित रहा है। कोई यह अनुमान न लगा सका कि इतनी व्यवस्था, इतनी सामग्री कहाँ से जुट सकी। यह सब अदृश्य सत्ता का खेल था। सूक्ष्मशरीर से वे ऋषि भी उपस्थित हुए थे, जिनके दर्शन हमने प्रथम हिमालय यात्रा में किए थे। इन सब कार्यों के पीछे जो शक्ति काम कर रही थी, उसके संबंध में कोई तथ्य किसी को विदित नहीं। लोग इसे हमारी करामात-चमत्कार कहते रहे। भगवान साक्षी है कि हम जड़भरत की तरह— मात्र दर्शक की तरह यह सारा खेल देखते रहे। जो शक्ति इस व्यवस्था को बना रही थी, उसके संबंध में कदाचित् ही किसी को कुछ आभास हुआ हो।
तीसरा काम जो हमें मथुरा में करना था, वह था— गायत्री तपोभूमि का निर्माण। इतने बड़े कार्यक्रम के लिए छोटी इ...
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हमारी वसीयत और विरासत (भाग 70): मथुरा के कुछ रहस्यमय प्रसंग
गायत्री परिवार का संगठन करने के निमित्त, महापुरश्चरण की पूर्णाहुति के बहाने हजार कुंडी यज्ञ मथुरा में हुआ था। उसके संबंध में यह कथन अत्युक्तिपूर्ण नहीं है कि इतना बड़ा आयोजन महाभारत के उपरांत आज तक नहीं हुआ।
उसकी कुछ रहस्यमयी विशेषताएँ ऐसी थीं, जिनके संबंध में सही बात कदाचित् ही किसी को मालूम हो। एक लाख नैष्ठिक गायत्री उपासक देश के कोने-कोने में से आमंत्रित किए गए। वे सभी ऐसे थे, जिनने धर्मतंत्र से लोक-शिक्षण का काम हाथों-हाथ सँभाल लिया और इतना बड़ा हो गया, जितने कि भारत के समस्त धार्मिक संगठन मिलकर भी पूरे नहीं होते। इन व्यक्तियों से हमारा परिचय बिलकुल न था। पर उन सबके पास निमंत्रण-पत्र पहुँचे और वे अपना मार्ग-व्यय खरच करके भागते चले आए। यह एक पहेली है, जिसका समाधान ढूँढ़ पाना कठिन है।
दर्शकों...
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हमारी वसीयत और विरासत (भाग 69): मथुरा के कुछ रहस्यमय प्रसंग
प्रारंभ में मथुरा में रहकर जिन गतिविधियों को चलाने के लिए हिमालय से आदेश हुआ था, उन्हें अपनी जानकारी की क्षमता द्वारा कर सकना कठिन था। न साधन, न साथी, न अनुभव, न कौशल। फिर इतने विशाल काम किस प्रकार बन पड़े? हिम्मत टूटती-सी देखकर मार्गदर्शक ने परोक्षतः लगाम हाथ में सँभाली। हमारे शरीर भर का उपयोग हुआ। बाकी सब काम कठपुतली नचाने वाला बाजीगर स्वयं कराता रहा। लकड़ी के टुकड़े का श्रेय इतना ही है कि तार मजबूती से जकड़कर रखे और जिस प्रकार नाचने का संकेत हुआ, वैसा करने से इनकार नहीं किया।
चार घंटे नित्य लिखने के लिए निर्धारण किया। लगता रहा कि व्यास और गणेश का उदाहरण चल पड़ा। पुराण-लेखन में व्यास बोलते गए थे। ठीक वही यहाँ हुआ। आर्षग्रंथों का अनुवाद-कार्य अतिकठिन है। चारों वेद, 108 उपनिषदें, छहों दर्शन, चौब...

हमारी वसीयत और विरासत (भाग 68): विचार क्रांति का बीजारोपण, पुनः हिमालय आमंत्रण
मार्गदर्शक का आदेश वर्षों पूर्व मिल चुका था कि हमें छह माह के प्रवास के लिए पुनः हिमालय जाना होगा, पर पुनः मथुरा न लौटकर हमेशा के लिए वहाँ से मोह तोड़ते हुए हरिद्वार सप्तसरोवर में सप्तऋषियों की तपस्थली में ऋषिपरंपरा की स्थापना करनी होगी। अपना सारा दायित्व हमने क्रमशः धर्मपत्नी के कंधों पर सौंपना काफी पूर्व से आरंभ कर दिया था। वे पिछले तीन में से दो जन्मों में हमारी जीवनसंगिनी बनकर रही ही थीं। इस जन्म में भी उन्होंने अभिन्न साथी— सहयोगी की भूमिका निभाई थी। वस्तुतः हमारी सफलता के मूल में उनके समर्पण— एकनिष्ठ सेवाभाव को देखा जाना चाहिए। जो कुछ भी हमने चाहा; जिन प्रतिकूलताओं में जीवन जीने हेतु कहा, उन्होंने सहर्ष अपने को उस क्रम में ढाल लिया। हमारी पारिवारिक पृष्ठभूमि ग्रामीण जमींदार के घराने की ...

शांतिकुंज में रक्षाबंधन पर श्रावणी उपाकर्म का भव्य आयोजन
श्रद्धेया शैलदीदी ने बांधे रक्षासूत्र, साधकों ने लिया जीवन में सत्कर्म अपनाने व पौधारोपण का संकल्प
हरिद्वार 9 अगस्त।
गायत्री तीर्थ शांतिकुंज में रक्षाबंधन के पावन अवसर पर सामूहिक श्रावणी उपाकर्म संस्कार का भव्य आयोजन हुआ। इसमें देश-विदेश से अपने गुरुधाम पहुँचे हजारों साधकों ने भाग लिया। इस दौरान हेमाद्रि संकल्प व दश स्थान आदि का वैदिक कर्मकाण्ड शांतिकुंज के प्रशिक्षित आचार्यों की टीम द्वारा विधिवत संपन्न कराया गया। आज से प्रारंभ हुए विशेष वृक्षारोपण अभियान की शुरुआत एक पौधे की पूजा कर की गई। इस अभियान के अंतर्गत वृक्षो रक्षति रक्षित: की भावना से पूरे मास में देशभर में लाखों पौधे रोपने का संकल्प लिया गया है।
अपने संदेश में अखिल विश्व गायत्री परिवार प्रमुख श्रद्धेया शैलदीदी ने कहा कि रक्...
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हमारी वसीयत और विरासत (भाग 67): विचार-क्रांति का बीजारोपण पुनः हिमालय आमंत्रण
इससे हमारी स्वयं की संगठन सामर्थ्य विकसित हुई। हमने गायत्री तपोभूमि के सीमित परिकर में ही एक सप्ताह, नौ दिन एवं एक-एक माह के कई शिविर आयोजित किए। आत्मोन्नति के लिए पंचकोशी-साधना शिविर, स्वास्थ्य-संवर्द्धन हेतु कायाकल्प सत्र एवं संगठन विस्तार हेतु परामर्श एवं जीवन-साधना सत्र उन कुछ प्रमुख आयोजनों में से हैं, जो हमने सहस्र एवं शतकुंडी यज्ञ के बाद मथुरा में मार्गदर्शक के निर्देशानुसार संपन्न किए। गायत्री तपोभूमि में आने वाले परिजनों से जो हमें प्यार मिला; परस्पर आत्मीयता की जो भावना विकसित हुई, उसी ने एक विशाल गायत्री परिवार को जन्म दिया। यह वही गायत्री परिवार है, जिसका हर सदस्य हमें पिता के रूप में— उँगली पकड़कर चलाने वाले मार्गदर्शक के रूप में— घर-परिवार-मन की समस्याओं को सुलझाने वाले चिकित्सक...
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हमारी वसीयत और विरासत (भाग 66):विचार-क्रांति का बीजारोपण पुनः हिमालय आमंत्रण
मथुरा से ही उस विचार-क्रांति अभियान ने जन्म लिया, जिसके माध्यम से आज करोड़ों व्यक्तियों के मन-मस्तिष्कों को उलटने का संकल्प पूरा कर दिखाने का हमारा दावा आज सत्य होता दिखाई देता है। सहस्रकुंडी यज्ञ तो पूर्वजन्म से जुड़े उन परिजनों के समागम का एक माध्यम था, जिन्हें भावी जीवन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभानी थी। इस यज्ञ में एक लाख से भी अधिक लोगों ने समाज से, परिवार से एवं अपने अंदर से बुराइयों को निकाल फेंकने की प्रतिज्ञाएँ लीं। यह यज्ञ नरमेध यज्ञ था। इनमें हमने समाज के लिए समर्पित लोकसेवियों की माँग की एवं समयानुसार हमें वे सभी सहायक उपलब्ध होते चले गए। यह सारा खेल उस अदृश्य बाजीगर द्वारा संपन्न होता ही हम मानते आए हैं, जिसने हमें माध्यम बनाकर समग्र परिवर्तन का ढाँचा खड़ा कर दिखाया।
मथुरा में ही न...

हमारी वसीयत और विरासत (भाग 65): प्रवास का दूसरा चरण एवं कार्यक्षेत्र का निर्धारण
एक दिन हम रात को 1 बजे के करीब ऊपर गए। लालटेन हाथ में थी। भागने वालों से रुकने के लिए कहा। वे रुक गए। हमने कहा— ‘‘आप बहुत दिन से इस घर में रहते आए हैं। ऐसा करें कि ऊपर की मंजिल के सात कमरों में आप लोग गुजारा करें। नीचे के आठ कमरों में हमारा काम चल जाएगा। इस प्रकार हम सब राजीनामा करके रहें। न आप लोग परेशान हों और न हमें हैरान होना पड़े।’’ किसी ने उत्तर नहीं दिया। खड़े जरूर रहे। दूसरे दिन से पूरा घटनाक्रम बदल गया। हमने अपनी ओर से समझौते का पालन किया और वे सभी उस बात पर सहमत हो गए। छत पर कभी-कभी चलने-फिरने जैसी आवाजें तो सुनी गईं, पर ऐसा उपद्रव न हुआ, जिससे हमारी नींद हराम होती; बच्चे डरते या काम में विघ्न पड़ता। घर में जो टूट-फूट थी, अपने पैसों से सँभलवा ली। ‘अखण्ड ज्योति’ पत्रिका पुनः इसी घर से ...
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हमारी वसीयत और विरासत (भाग 64): प्रवास का दूसरा चरण एवं कार्यक्षेत्र का निर्धारण
अब मथुरा जाने की तैयारी थी। एक बार दर्शन की दृष्टि से मथुरा देखा तो था, पर वहाँ किसी से परिचय न था। चलकर पहुँचा गया और ‘अखण्ड ज्योति’ प्रकाशन के लायक एक छोटा मकान किराए पर लेने का निश्चय किया।
मकानों की उन दिनों भी किल्लत थी। बहुत ढूँढ़ने के बाद भी आवश्यकता के अनुरूप मिल नहीं रहा था। ढूँढ़ते-ढूँढ़ते घीया मंडी जा निकले। एक मकान खाली मिला। बहुत दिन से खाली पड़ा था। मालकिन एक बुढ़िया थी। किराया पूछा, तो उसने पंद्रह रुपया बताया और चाबी हाथ में थमा दी। भीतर घुसकर देखा, तो उसमें छोटे-बड़े कुल पंद्रह कमरे थे। था तो जीर्ण-शीर्ण पर एक रुपया कमरे के हिसाब से वह मँहगा किसी दृष्टि से न था। हमारे लिए काम-चलाऊ भी था। पसंद आ गया और एक महीने का किराया पेशगी पंद्रह रुपया हाथ पर रख दिए। बुढ़िया बहुत प्रसन्न थी।
घर ...