Gurudev
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हमारी वसीयत और विरासत (भाग 67): विचार-क्रांति का बीजारोपण पुनः हिमालय आमंत्रण
इससे हमारी स्वयं की संगठन सामर्थ्य विकसित हुई। हमने गायत्री तपोभूमि के सीमित परिकर में ही एक सप्ताह, नौ दिन एवं एक-एक माह के कई शिविर आयोजित किए। आत्मोन्नति के लिए पंचकोशी-साधना शिविर, स्वास्थ्य-संवर्द्धन हेतु कायाकल्प सत्र एवं संगठन विस्तार हेतु परामर्श एवं जीवन-साधना सत्र उन कुछ प्रमुख आयोजनों में से हैं, जो हमने सहस्र एवं शतकुंडी यज्ञ के बाद मथुरा में मार्गदर्शक के निर्देशानुसार संपन्न किए। गायत्री तपोभूमि में आने वाले परिजनों से जो हमें प्यार मिला; परस्पर आत्मीयता की जो भावना विकसित हुई, उसी ने एक विशाल गायत्री परिवार को जन्म दिया। यह वही गायत्री परिवार है, जिसका हर सदस्य हमें पिता के रूप में— उँगली पकड़कर चलाने वाले मार्गदर्शक के रूप में— घर-परिवार-मन की समस्याओं को सुलझाने वाले चिकित्सक...
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हमारी वसीयत और विरासत (भाग 66):विचार-क्रांति का बीजारोपण पुनः हिमालय आमंत्रण
मथुरा से ही उस विचार-क्रांति अभियान ने जन्म लिया, जिसके माध्यम से आज करोड़ों व्यक्तियों के मन-मस्तिष्कों को उलटने का संकल्प पूरा कर दिखाने का हमारा दावा आज सत्य होता दिखाई देता है। सहस्रकुंडी यज्ञ तो पूर्वजन्म से जुड़े उन परिजनों के समागम का एक माध्यम था, जिन्हें भावी जीवन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभानी थी। इस यज्ञ में एक लाख से भी अधिक लोगों ने समाज से, परिवार से एवं अपने अंदर से बुराइयों को निकाल फेंकने की प्रतिज्ञाएँ लीं। यह यज्ञ नरमेध यज्ञ था। इनमें हमने समाज के लिए समर्पित लोकसेवियों की माँग की एवं समयानुसार हमें वे सभी सहायक उपलब्ध होते चले गए। यह सारा खेल उस अदृश्य बाजीगर द्वारा संपन्न होता ही हम मानते आए हैं, जिसने हमें माध्यम बनाकर समग्र परिवर्तन का ढाँचा खड़ा कर दिखाया।
मथुरा में ही न...

हमारी वसीयत और विरासत (भाग 65): प्रवास का दूसरा चरण एवं कार्यक्षेत्र का निर्धारण
एक दिन हम रात को 1 बजे के करीब ऊपर गए। लालटेन हाथ में थी। भागने वालों से रुकने के लिए कहा। वे रुक गए। हमने कहा— ‘‘आप बहुत दिन से इस घर में रहते आए हैं। ऐसा करें कि ऊपर की मंजिल के सात कमरों में आप लोग गुजारा करें। नीचे के आठ कमरों में हमारा काम चल जाएगा। इस प्रकार हम सब राजीनामा करके रहें। न आप लोग परेशान हों और न हमें हैरान होना पड़े।’’ किसी ने उत्तर नहीं दिया। खड़े जरूर रहे। दूसरे दिन से पूरा घटनाक्रम बदल गया। हमने अपनी ओर से समझौते का पालन किया और वे सभी उस बात पर सहमत हो गए। छत पर कभी-कभी चलने-फिरने जैसी आवाजें तो सुनी गईं, पर ऐसा उपद्रव न हुआ, जिससे हमारी नींद हराम होती; बच्चे डरते या काम में विघ्न पड़ता। घर में जो टूट-फूट थी, अपने पैसों से सँभलवा ली। ‘अखण्ड ज्योति’ पत्रिका पुनः इसी घर से ...
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हमारी वसीयत और विरासत (भाग 64): प्रवास का दूसरा चरण एवं कार्यक्षेत्र का निर्धारण
अब मथुरा जाने की तैयारी थी। एक बार दर्शन की दृष्टि से मथुरा देखा तो था, पर वहाँ किसी से परिचय न था। चलकर पहुँचा गया और ‘अखण्ड ज्योति’ प्रकाशन के लायक एक छोटा मकान किराए पर लेने का निश्चय किया।
मकानों की उन दिनों भी किल्लत थी। बहुत ढूँढ़ने के बाद भी आवश्यकता के अनुरूप मिल नहीं रहा था। ढूँढ़ते-ढूँढ़ते घीया मंडी जा निकले। एक मकान खाली मिला। बहुत दिन से खाली पड़ा था। मालकिन एक बुढ़िया थी। किराया पूछा, तो उसने पंद्रह रुपया बताया और चाबी हाथ में थमा दी। भीतर घुसकर देखा, तो उसमें छोटे-बड़े कुल पंद्रह कमरे थे। था तो जीर्ण-शीर्ण पर एक रुपया कमरे के हिसाब से वह मँहगा किसी दृष्टि से न था। हमारे लिए काम-चलाऊ भी था। पसंद आ गया और एक महीने का किराया पेशगी पंद्रह रुपया हाथ पर रख दिए। बुढ़िया बहुत प्रसन्न थी।
घर ...

हमारी वसीयत और विरासत (भाग 63): प्रवास का दूसरा चरण एवं कार्यक्षेत्र का निर्धारण
जो आदेश हो रहा है, उसमें किसी प्रकार की त्रुटि नहीं रहने दी जाएगी। यह मैंने प्रथम मिलन की तरह उन्हें आश्वासन दे दिया। पर एक ही संदेह रहा कि इतने विशालकाय कार्य के लिए जो धनशक्ति और जनशक्ति की आवश्यकता पड़ेगी, उसकी पूर्ति कहाँ से होगी?
मन को पढ़ रहे गुरुदेव हँस पड़े। ‘‘इन साधनों के लिए चिंता की आवश्यकता नहीं है। जो तुम्हारे पास है, उसे बोना आरंभ करो। इसकी फसल सौ गुनी होकर पक जाएगी और जो काम सौंपे गए हैं, उन सभी के पूरा हो जाने का सुयोग बन जाएगा।’’ क्या हमारे पास है; उसे कैसे, कहाँ बोया जाना है और उसकी फसल कब, किस प्रकार पकेगी? यह जानकारी भी उनने दी।
जो उन्होंने कहा, उसकी हर बात गाँठ बाँध ली। भूलने का तो प्रश्न ही नहीं था। भूला तब जाता है, जब उपेक्षा होती है। सेनापति का आदेश सैनिक कहाँ भूलता है? ...
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हमारी वसीयत और विरासत (भाग 62) प्रवास का दूसरा चरण एवं कार्यक्षेत्र का निर्धारण
“नैतिक क्रांति, बौद्धिक क्रांति और सामाजिक क्रांति संपन्न की जानी है। इसके लिए उपयुक्त व्यक्तियों का संग्रह करना और जो करना है, उससे संबंधित विचारों को व्यक्त करना अभी से आवश्यक है। इसलिए तुम अपना घर-गाँव छोड़कर मथुरा जाने की तैयारी करो। वहाँ एक छोटा घर लेकर एक मासिक पत्रिका आरंभ करो। साथ ही तीनों क्रांतियों के संबंध में आवश्यक जानकारी देने का प्रकाशन भी। अभी तुमसे इतना ही काम बन पड़ेगा। थोड़े ही दिन उपरांत तुम्हें दुर्वासा ऋषि की तपस्थली में मथुरा के समीप एक भव्य गायत्री मंदिर बनाना है; सहकर्मियों के आवागमन, निवास, ठहरने आदि के लिए। इसके उपरांत 24 महापुरश्चरण के पूरे हो जाने की पूर्णाहुतिस्वरूप एक महायज्ञ करना है। अनुष्ठानों की परंपरा जप के साथ यज्ञ करने की है। तुम्हारे 24 लक्ष के 24 अनुष्ठान ...

हमारी वसीयत और विरासत (भाग 61)— प्रवास का दूसरा चरण एवं कार्यक्षेत्र का निर्धारण
चर्चा एक से चल रही थी, पर निमंत्रण पहुँचते एक क्षण लगा और वे सभी एक-एक करके एकत्रित हो गए। निराशा गई; आशा बँधी और आगे का कार्यक्रम बना कि जो हम सब करते रहे हैं, उसका बीज एक खेत में बोया जाए और पौधशाला में एक पौध तैयार की जाए। उसके पौधे सर्वत्र लगेंगे और उद्यान लहलहाने लगेगा।
यह शान्तिकुञ्ज बनाने की योजना थी, जो हमें मथुरा के निर्धारित निवास के बाद पूरी करनी थी। गायत्री नगर बसने और ब्रह्मवर्चस् शोध संस्थान का ढाँचा खड़ा किए जाने की योजना भी विस्तार से समझाई गई। पूरे ध्यान से उसका एक-एक अक्षर हृदयपटल पर लिख लिया और निश्चय किया कि 24 लक्ष्य का पुरश्चरण पूरा होते ही इस कार्यक्रम की रूपरेखा बनेगी और चलेगी। निश्चय ही— अवश्य ही। और जिसे गुरुदेव का संरक्षण प्राप्त हो, वह असफल रहे, ऐसा हो ही नहीं सकता...

हमारी वसीयत और विरासत (भाग 60)— प्रवास का दूसरा चरण एवं कार्यक्षेत्र का निर्धारण
गुरुदेव के आदेश पर तो मैं यह भी कह सकता था कि, “जलती आग में जल मरूँगा। जो होना होगा, सो होता रहेगा। प्रतिज्ञा करने और उसे निभाने में प्राण की साक्षी देकर प्रण तो किया ही जा सकता है।” यह विचार मन में उठ रहे थे। गुरुदेव उन्हें पढ़ रहे थे। अब की बार मैंने देखा कि उनका चेहरा ब्रह्मकमल जैसा खिल गया।
दोनों स्तब्ध थे और प्रसन्न भी। पीछे लौट चलने और उन सभी ऋषियों से दुबारा मिलने का निश्चय हुआ, जिनसे कि अभी-अभी विगत रात्रि ही मिलकर आए थे। दुबारा हम लोगों को वापस आया हुआ देखकर उनमें से प्रत्येक बारी-बारी से प्रसन्न होता गया और आश्चर्यान्वित भी।
मैं तो हाथ जोड़े, सिर नवाए, मंत्रमुग्ध की तरह खड़ा रहा। गुरुदेव ने मेरी कामना, इच्छा और उमंग उन्हें परोक्षतः परावाणी में कह सुनाई और कहा— ‘‘यह निर्जीव नहीं है। जो...
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हमारी वसीयत और विरासत (भाग 56)— प्रवास का दूसरा चरण एवं कार्यक्षेत्र का निर्धारण
पिछली बार जो तीन परीक्षाएँ ली थीं, इस बार इनमें से एक से भी पाला नहीं पड़ा। जो परीक्षा ली जा चुकी है, उसी को बार-बार लेने की आवश्यकता भी नहीं समझी गई। गंगोत्री तक का रास्ता ऐसा था, जिसके लिए किसी से पूछताछ नहीं करनी थी। गंगोत्री से गोमुख के 14 मील ही ऐसे हैं, जिसका रास्ता बरफ पिघलने के बाद हर साल बदल जाता है; चट्टानें टूट जाती हैं और इधर-से-उधर गिर पड़ती हैं। छोटे नाले भी चट्टानों से रास्ता रुक जाने के कारण अपना रास्ता इधर-से-उधर बदलते रहते हैं। नए वर्ष का रास्ता यों तो उस क्षेत्र से परिचित किसी जानकार को लेकर पूरा करना पड़ता था, या फिर अपनी विशेष बुद्धि का सहारा लेकर अनुमान के आधार पर बढ़ते और रुकावट आ जाने पर लौटकर दूसरा रास्ता खोजने का क्रम चलता रहा। इस प्रकार गोमुख जा पहुँचे।
आगे के लिए गुरु...
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हमारी वसीयत और विरासत (भाग 55)— प्रवास का दूसरा चरण एवं कार्यक्षेत्र का निर्धारण
प्रथम परीक्षा देने के लिए हिमालय बुलाए जाने के आमंत्रण को प्रायः दस वर्ष बीत गए। फिर बुलाए जाने की आवश्यकता नहीं समझी गई। उनके दर्शन उसी मुद्रा में होते रहे, जैसे कि पहली बार हुए थे। ‘‘सब ठीक है’’ इतने ही शब्द कहकर प्रत्यक्ष संपर्क पूरा होता रहा। अंतरात्मा में उनका समावेश निरंतर होता रहा। कभी ऐसा अनुभव नहीं हुआ कि हम अकेले हैं। सदा दो साथ रहने जैसी अनुभूति होती रही। इस प्रकार दस वर्ष बीत गए।
स्वतंत्रता-संग्राम चल ही रहा था। इसी बीच ऋतु अनुकूल पाकर पुनः आदेश आया, हिमालय पहुँचने का। दूसरे ही दिन चलने की तैयारी कर दी। आदेश की उपेक्षा करना, विलंब लगाना, हमारे लिए संभव न था। जाने की जानकारी घर के सदस्यों को देकर प्रातःकाल ब्रह्ममुहूर्त्त में चल पड़ने की तैयारी कर दी। सड़क तब भी उत्तरकाशी तक ही बनी ...