हमारी वसीयत और विरासत (भाग 93): शान्तिकुञ्ज में गायत्री तीर्थ की स्थापना
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यहाँ सभी सत्रों में आने वालों की स्वास्थ्य परीक्षा की जाती है। उसी के अनुरूप उन्हें साधना करने का निर्देश दिया जाता है। अध्यात्म और विज्ञान के समन्वय पर इस प्रकार शोध करने वाली विश्व की यह पहली एवं स्वयं में अनुपम प्रयोगशाला है।
इसके अतिरिक्त भी सामयिक प्रगति के लिए जनसाधारण को जो प्रोत्साहन दिए जाने हैं, उनकी अनेक शिक्षाएँ यहीं दी जाती हैं। अगले दिनों और भी बड़े काम हाथ में लिए जाने हैं।
गायत्री परिवार के लाखों व्यक्ति उत्तराखंड की यात्रा करने के लिए जाते समय शान्तिकुञ्ज के दर्शन करते हुए यहाँ की रज मस्तिष्क पर लगाते हुए तीर्थयात्रा आरंभ करते हैं। बच्चों के अन्नप्राशन, नामकरण, मुंडन, यज्ञोपवीत आदि संस्कार यहाँ आकर कराते हैं; क्योंकि परिजन इसे सिद्धपीठ मानते हैं। पूर्वजों के श्राद्ध तर्पण कराने का भी यहाँ प्रबंध है। जन्मदिन, विवाहदिन मनाने हर वर्ष प्रमुख परिजन यहाँ आते हैं। बिना दहेज की शादियाँ हर वर्ष यहाँ व तपोभूमि में होती हैं। इससे परिजनों को सुविधा भी बहुत रहती है। इस खरचीली कुरीति से भी पीछा छूटता है।
जब पिछली बार हम हिमालय गए थे और हरिद्वार जाने और शान्तिकुञ्ज रहकर ऋषियों की कार्यपद्धति को पुनर्जीवन देने का काम हमें सौंपा गया था, तब यह असमंजस था कि इतना बड़ा कार्य हाथ में लेने में न केवल विपुल धन की आवश्यकता है, वरन् इसमें कार्यकर्त्ता भी उच्च श्रेणी के चाहिए। वे कहाँ मिलेंगे? सभी संस्थाओं के पास वेतनभोगी हैं। वे भी चिह्नपूजा करते हैं। हमें ऐसे जीवनदानी कहाँ से मिलेंगे? पर आश्चर्य है कि शान्तिकुञ्ज में— ब्रह्मवर्चस् में इन दिनों रहने वाले कार्यकर्त्ता ऐसे हैं, जो अपनी बड़ी-बड़ी पोस्टों से स्वेच्छा से त्यागपत्र देकर आए हैं। सभी ग्रेजुएट, पोस्ट ग्रेजुएट स्तर के हैं अथवा प्रखर प्रतिभासंपन्न हैं। इनमें से कुछ तो मिशन के चौके में भोजन करते हैं। कुछ उसकी लागत भी अपनी जमा धनराशि के ब्याज से चुकाते रहते हैं। कुछ के पास पेंशन आदि का प्रबंध भी है। भावावेश में आने-जाने वालों का क्रम चलता रहता है। पर जो मिशन के सूत्रसंचालक के मूलभूत उद्देश्य को समझते हैं, वे स्थायी बनकर टिकते व काम करते हैं। खुशी की बात है कि ऐसे भावनाशील नैष्ठिक परिजन सतत आते व संस्था से जुड़ते चले जा रहे हैं।
क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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