हमारी वसीयत और विरासत (भाग 95): बोओ एवं काटो’ का मंत्र, जो हमने जीवन भर अपनाया

हिमालययात्रा से हरिद्वार लौटकर आने के बाद जब आश्रम का प्रारंभिक ढाँचा बनकर तैयार हुआ, तो विस्तार हेतु साधनों की आवश्यकता प्रतीत होने लगी। समय की विषमता ऐसी थी कि जिससे जूझने के लिए हमें कितने ही साधनों, व्यक्तित्वों एवं पराक्रमों की आवश्यकता अपेक्षित थी। दो काम करने थे— एक संघर्ष, दूसरा सृजन। संघर्ष उन अवांछनीयताओं से, जो अब तक की संचित सभ्यता, प्रगति और संस्कृति को निगल जाने के लिए मुँह बाए खड़ी हैं। सृजन उसका, जो भविष्य को उज्ज्वल एवं सुख-शांति से भरा-पूरा बना सके। दोनों ही कार्यों का प्रयोग समूचे धरातल पर निवास करने वाले 500 करोड़ मनुष्यों के लिए करना ठहरा था, इसलिए विस्तारक्रम अनायास ही अधिक हो जाता है।
निज के लिए हमें कुछ भी न करना था। पेट भरने के लिए जिस स्रष्टा ने कीट-पतंगों तक के लिए व्यवस्था बना रखी है, वह हमें क्यों भूखा रहने देगा। भूखे उठते तो सब हैं, पर खाली पेट सोता कोई नहीं। इस विश्वास ने निजी कामनाओं का आरंभ में ही समापन कर दिया। न लोभ ने कभी सताया, न मोह ने। वासना, तृष्णा और अहंता में से कोई भी भवबंधन बँधकर पीछे न लग सकी। जो करना था, भगवान के लिए करना था; गुरुदेव के निर्देशन पर करना था। उन्होंने संघर्ष और सृजन के दो ही काम सौंपे थे, सो उन्हें करने में सदा उत्साह ही रहा। टाल-मटोल करने की न प्रवृत्ति थी और न कभी इच्छा हुई। जो करना, सो तत्परता और तन्मयता से करना, यह आदत जन्मजात दिव्य अनुदान के रूप में मिली और अद्यावधि यथावत् बनी रही।
जिन साधनों की नवसृजन के लिए आवश्यकता थी, वे कहाँ से मिलें; कहाँ से आवें? इस प्रश्न के उत्तर में मार्गदर्शक ने हमें हमेशा एक ही तरीका बताया था कि ‘बोओ ओर काटो’। मक्का और बाजरा का एक बीज जब पौधा बनकर फलता है, तो एक के बदले सौ नहीं, वरन् उससे भी अधिक मिलता है। द्रोपदी ने किसी संत को अपनी साड़ी फाड़कर दी थी, जिससे उन्होंने लँगोटी बनाकर अपना काम चलाया था। वही आड़े समय में इतनी लंबी बनी कि उन साड़ियों के गट्ठे को सिर पर रखकर भगवान को स्वयं भागकर आना पड़ा। ‘‘जो तुझे पाना है, उसे बोना आरंभ कर दे।’’— यही बीजमंत्र हमें बताया और अपनाया गया। प्रतिफल ठीक वैसा ही निकला, जैसा कि संकेत किया गया।
शरीर, बुद्धि और भावनाएँ स्थूल, सूक्ष्म और कारणशरीरों के साथ भगवान सबको देते हैं। धन स्व-उपार्जित होता है। कोई हाथों-हाथ कमाते हैं, तो कोई पूर्वसंचित संपदा को उत्तराधिकार में पाते हैं। हमने कमाया तो नहीं था, पर उत्तराधिकार में अवश्य समुचित मात्रा में पाया। इन सबको बो देने और समय पर काट लेने के लायक गुंजाइश थी, सो बिना समय गँवाए उस प्रयोजन में अपने को लगा दिया।
रात में भगवान का भजन कर लेना और दिन भर विराट-ब्रह्म के लिए— विश्वमानव के लिए समय और श्रम नियोजित रखना, यह शरीर-साधना के रूप में निर्धारित किया गया।
बुद्धि दिन भर जागने में ही नहीं, रात्रि के सपने में भी लोक-मंगल की विधाएँ विनिर्मित करने में लगी रही। अपने निज के लिए सुविधा-संपदा कमाने का ताना-बाना बुनने की कभी भी इच्छा ही नहीं हुई। अपनी भावनाएँ सदा विराट के लिए लगी रहीं। प्रेम, किसी वस्तु या व्यक्ति से नहीं, आदर्शों से किया। गिरों को उठाने और पिछड़ों को बढ़ाने की ही भावनाएँ सतत उमड़ती रहीं।
क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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