हमारी वसीयत और विरासत (भाग 98): बोओ एवं काटो’ का मंत्र, जो हमने जीवन भर अपनाया

अध्यात्म को विज्ञान से मिलाने की योजना— कल्पना में तो कइयों के मन में थी, पर उसे कोई कार्यान्वित न कर सका। इस असंभव को संभव होते देखना हो, तो ब्रह्मवर्चस् शोध संस्थान में आकर अपनी आँखों से स्वयं देखना चाहिए। जो संभावनाएँ सामने हैं, उन्हें देखते हुए कहा जा सकता है कि अगले दिनों अध्यात्म की रूपरेखा विशुद्ध विज्ञानपरक बनकर रहेगी।
छोटे-छोटे देश अपनी पंचवर्षीय योजनाएँ बनाने के लिए आकाश-पाताल के कुलावे मिलाते हैं। पर समस्त विश्व की कायाकल्प योजना का चिंतन और क्रियान्वयन जिस प्रकार शान्तिकुञ्ज के तत्त्वावधान में चल रहा है, उसे एक शब्द में अद्भुत एवं अनुपम ही कहा जा सकता है।
भावनाएँ हमने पिछड़ों के लिए समर्पित की हैं। शिव ने भी यही किया था। उनके साथ चित्र-विचित्र समुदाय रहता था और सर्पों तक को वे गले लगाते थे। उसी राह पर हमें भी चलते रहना पड़ा है। हम पर छुरा-रिवाल्वर चलाने वाले को पकड़ने वाले जब दौड़ रहे थे; पुलिस भी लगी हुई थी। सभी को हमने वापस बुला लिया और घातक को जल्दी ही भाग जाने का अवसर दिया। जीवन में ऐसे अनेक प्रसंग आए हैं, जब प्रतिपक्षी अपनी ओर से कुछ कमी न रहने देने पर भी मात्र हँसने और हँसाने के रूप में प्रतिदान पाते रहे हैं।
हमने जितना प्यार लोगों से किया है, उससे सौ गुनी संख्या और मात्रा में लोग हमारे ऊपर प्यार लुटाते रहे हैं। निर्देशों पर चलते रहे हैं और घाटा उठाने तथा कष्ट सहने में पीछे नहीं रहे हैं। कुछ दिन पूर्व प्रज्ञा-संस्थान बनाने का स्वजनों को आदेश किया, तो दो वर्ष के भीतर 2400 गायत्री शक्तिपीठों की भव्य इमारतें बनकर खड़ी हो गईं और उसमें लाखों रुपयों की राशि रकम खप गई। बिना इमारत के 12 हजार प्रज्ञा-संस्थान बने, सो अलग। छुरा लगा, तो सहानुभूति में इतनी बड़ी संख्या स्वजनों की उमड़ी, मानो मनुष्यों का आँधी-तूफान आया हो। इनमें से हर एक बदला लेने के लिए आतुरता व्यक्त कर रहा था। हमने— माताजी ने सभी को दुलारकर दूसरी दिशा में मोड़ा। यह हमारे प्रति प्यार की— सघन आत्मीयता की ही अभिव्यक्ति तो है।
हमने जीवन भर प्यार खरीदा; बटोरा और लुटाया है। इसका एक नमूना हमारी धर्मपत्नी, जिन्हें हम माताजी कहकर संबोधित करते हैं, की भावनाएँ पढ़कर कोई भी समझ सकता है। वे काया और छाया की तरह साथ रही हैं और एक प्राण दो शरीर की तरह हमारे हर काम में हर घड़ी हाथ बँटाती रही हैं।
पशु-पक्षियों तक का हमने ऐसा प्यार पाया है कि वे स्वजन-सहचर की तरह आगे-पीछे फिरते रहे हैं। लोगों ने आश्चर्य से देखा है कि सामान्यतः जो प्राणी मनुष्य से सर्वथा दूर रहते हैं, वे किस तरह कंधे पर बैठते, पीछे-पीछे फिरते और चुपके से बिस्तर में आ सोते हैं। ऐसे दृश्य हजारों ने हजारों की संख्या में देखे और आश्चर्यचकित रह गए हैं। यह और कुछ नहीं, प्रेम का प्रतिदान मात्र था।
धन की हमें समय-समय पर भारी आवश्यकता पड़ती रही है। गायत्री तपोभूमि, शान्तिकुञ्ज और ब्रह्मवर्चस् की इमारतें करोड़ों रुपए मूल्य की हैं। मनुष्य के आगे हाथ न पसारने का व्रत निबाहते हुए— अयाचक व्रत निबाहते हुए यह सारी आवश्यकताएँ पूरी हुई हैं। पूरा समय काम करने वालों की संख्या एक हजार से ऊपर है। इनकी आजीविका की ब्राह्मणोचित व्यवस्था बराबर चलती रहती है। प्रेस, प्रकाशन, प्रचार में संलग्न जीप-गाड़ियाँ तथा अन्यान्य खरचे ऐसे हैं, जो समयानुसार बिना किसी कठिनाई के पूरे होते रहते हैं। यह वह फसल है, जो अपने पास की एक-एक पाई को भगवान के खेत में बो देने के उपरांत हमें मिली है। इस फसल पर हमें गर्व है। जमींदारी समाप्त होने पर जो धनराशि मिली, वह गायत्री तपोभूमि निर्माण में दे दी। पूर्वजों की छोड़ी जमीन किसी कुटुंबी को न देकर जन्मभूमि में हाईस्कूल और अस्पताल बनाने में लगा दी। हम व्यक्तिगत रूप से खाली हाथ हैं, पर योजनाएँ ऐसी चलाते हैं, जैसी लखपति-करोड़पतियों के लिए भी संभव नहीं हैं। यह सब हमारे मार्गदर्शक के उस सूत्र के कारण संभव हो पाया है, जिसमें उन्होंने कहा था— ‘‘जमा मत करो, बिखेर दो। बोओ और काटो।’’ सत्प्रवृत्तियों का उद्यान, जो प्रज्ञा परिवार के रूप में लहलहाता दृश्यमान होता है, उसकी पृष्ठभूमि इसी सूत्र-संकेत के आधार पर बनी है।
क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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