ब्राह्मण मन और ऋषिकर्म

अंतरंग में ब्राह्मण वृत्ति जगते ही बहिरंग में साधु प्रवृत्ति का उभरना स्वाभाविक है। ब्राह्मण अर्थात लिप्सा से जूझ सकने योग्य मनोबल का धनी— प्रलोभनों और दबावों का सामना करने में समर्थ— औसत भारतीय स्तर के निर्वाह में काम चलाने से संतुष्ट। इन परीक्षाओं में उत्तीर्ण होने के लिए आरंभिक जीवन में ही मार्गदर्शक का समर्थ प्रशिक्षण मिला। वही ब्राह्मण जन्म था। माता-पिता तो एक मांसपिंड को जन्म इससे पहले ही दे चुके थे। ऐसे नर-पशुओं का कलेवर न जाने कितनी बार पहनना और छोड़ना पड़ा होगा। तृष्णाओं की पूर्ति के लिए न जाने कितनी बार पाप के पोटले, कमाने, लादने, ढोने और भुगतने पड़े होंगे, पर संतोष और गर्व इसी जन्म पर है। जिसे ब्राह्मण जन्म कहा जा सकता है। एक शरीर नर-पशु का, दूसरा नर-नारायण का प्राप्त करने का सुयोग इसी बार मिला है।
ब्राह्मण के पास सामर्थ्य का भंडार बचा रहता है; क्योंकि शरीरयात्रा का गुजारा तो बहुत थोड़े में निबट जाता है। हाथी, ऊँट, भैंसे आदि के पेट बड़े होते हैं। उन्हें उसे भरने के लिए पूरा समय लगे, तो बात समझ में आती है, पर मनुष्य के सामने वैसी कठिनाई नहीं है। बीस उँगली वाले दो हाथ— कमाने की हजार तरकीबें ढूँढ़ निकालने वाला मस्तिष्क— सर्वत्र उपलब्ध विपुल साधन— परिवार-सहकार का अभ्यास, इतनी सुविधाओं के रहते किसी को भी गुजारे में कमी न पड़नी चाहिए, न असुविधा। फिर पेट की लंबाई-चौड़ाई भी तो मात्र छह इंच की है। इतना तो मोर-कबूतर भी कमा लेते हैं। मनुष्य के सामने निर्वाह की कोई समस्या नहीं। वह कुछ ही घंटे के परिश्रम में पूरी हो जाती है। फिर सारा समय खाली-ही-खाली बचता है। जिसके अंतराल में संत जाग पड़ता है, वह एक ही बात सोचता है कि समय, श्रम, मनोयोग की जो प्रखरता-प्रतिभा हस्तगत हुई है, उसका उपयोग कहाँ किया जाए? कैसे किया जाए?
क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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